आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में। फिर विश्व माँगता होवे ले नभ की…
आशा का फैल रहा है यह सूना नीला अंचल फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे उसमें करुणा हो चंचल मधु संसृत्ति की पुलकावलि जागो, अपने यौवन में फिर से मरन्द हो कोमल कुसुमों के वन में। फिर विश्व माँगता होवे ले नभ की…
सपनों की सोनजुही सब बिखरें, ये बनकर तारा सित सरसित से भर जावे वह स्वर्ग गंगा की धारा नीलिमा शयन पर बैठी अपने नभ के आँगन में विस्मृति की नील नलिन रस बरसो अपांग के घन से। चिर दग्ध दुखी…
यह पारावार तरल हो फेनिल हो गरल उगलता मथ डाला किस तृष्णा से तल में बड़वानल जलता। निश्वास मलय में मिलकर छाया पथ छू आयेगा अन्तिम किरणें बिखराकर हिमकर भी छिप जायेगा। चमकूँगा धूल कणों में सौरभ हो उड़ जाऊँगा…
हीरे-सा हृदय हमारा कुचला शिरीष कोमल ने हिमशीतल प्रणय अनल बन अब लगा विरह से जलने। अलियों से आँख बचा कर जब कुंज संकुचित होते धुँधली संध्या प्रत्याशा हम एक-एक को रोते। जल उठा स्नेह, दीपक-सा, नवनीत हृदय था मेरा…
प्रतिमा में सजीवता-सी बस गयी सुछवि आँखों में थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही लाखों में। माना कि रूप सीमा हैं सुन्दर! तव चिर यौवन में पर समा गये थे, मेरे मन के निस्सीम गगन में। लावण्य शैल…
इस करुणा कलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती? मानस सागर के तट पर क्यों लोल लहर की घातें कल कल ध्वनि से हैं कहती कुछ विस्मृत बीती बातें? आती हैं शून्य क्षितिज…