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परशुराम की प्रतीक्षा

      खण्ड (1) गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ? शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ? उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था, तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था; सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,

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भारत का यह रेशमी नगर

दिल्ली फूलों में बसी, ओस-कण से भीगी, दिल्ली सुहाग है, सुषमा है, रंगीनी है, प्रेमिका-कंठ में पड़ी मालती की माला, दिल्ली सपनों की सेज मधुर रस-भीनी है। बस, जिधर उठाओ दृष्टि, उधर रेशम केवल, रेशम पर से क्षण भर को

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दिल्ली (कविता)

यह कैसी चांदनी अम के मलिन तमिर की इस गगन में, कूक रही क्यों नियति व्यंग से इस गोधूलि-लगन में? मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार? यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में! इस उजाड़ निर्जन

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लोहे के पेड़ हरे होंगे

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल। सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा, कंकालों कहो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटीधरा। आशा के

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जनतंत्र का जन्म

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब

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